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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी की खोजः
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बातचीत का प्रवाह बदल गया। सब-की-सब घबराकर खड़ी हो गईं। यहाँ-वहाँ जहाँ गिरी थी, उससे बहुत दूर तक अँगूठी की खोज होने लगी। वे करीब दस मिनट तक, उठकर, बैठकर, झुककर अँगूठी खोजती रहीं, पर वह न मिली। उनमें से एक तो मेरे बहुत पास तक आ गई। मैं घबराकर उठ बैठा। आशंका हुई कि कहीं अँगूठी का चोर मैं ही न समझा जाऊँ। जी चाहा कि मैं भी उनकी अँगूठी ढूँढ़ने लगूँ। पर उनकी अँगूठी बिना उनकी अनुमति के कैसे ढूँढ़ता?
मैं जानता था कि उनकी अँगूठी खोई है, फिर भी बातचीत का सिलसिला जारी करने के लिए उनके समीप पहुँचकर, कुछ संकोच के साथ मैंने पूछा, आप लोग क्या ढूँढ़ रही हैं? क्या मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ?
अँगूठी की मालकिन बोल उठीं, मेरी अँगूठी गिर गई है। बड़ी कीमती अँगूठी है।

इसके बाद मैं कुछ न बोला, उन लोगों के साथ उनकी अँगूठी मैं भी ढूँढ़ने लगा। परंतु करीब आधे घंटे तक ढूँढ़ने पर भी जब अँगूठी नहीं मिली, तो वे सब हताश हो गईं। मुझे उनकी दशा पर बड़ी दया-सी आई मैंने अँगूठी की स्वामिनी से कहा, यदि आप मुझ पर विश्वास कर सकती हों तो आप निश्चिंत होकर अपने घर जाइए। अब रात बहुत हो चुकी है, कोई आदमी यहाँ आएगा नहीं और मैं रात भर यहीं रहूँगा। सवेरे उठकर आपकी अँगूठी ढूँढ़कर आपको दे जाऊँगा? बस आप मुझे अपना पता भर बतला दें।
पहिले तो वह कुछ झिझकी। सिर से पैर तक उसने एक बार मुझे देखा, फिर न जाने क्या सोचकर बोली, मेरा नाम वृजांगना है। मैं पं०...
पास की दूसरी युवती ने उसके अधूरे वाक्य को पूरा किया, पं० नवलकिशोर की स्त्री हैं।
वृजांगना फिर बोल उठी, मेरा मकान नं० 155 सिविल लाइन में है।

'वृजांगना' नाम सुनते ही मैं चौंक-सा पड़ा। 'वृजांगना' क्‍या वही वृजांगना है जिसके विषय में मैं बहुत कुछ सुन चुका हूँ? वही चरित्र-भ्रष्ट 'वृजांगना' है? ईश्वर! मैं सिहर उठा। मैं तो उसे देखना भी न चाहता था। किंतु अब क्या करता? उसकी अँगूठी ढूँढ़ देने का वचन दे चुका था। और वचन देने के बाद, पीछे हटना मैंने सीखा ही न था। अब मुक्ति का कोई साधन न देखकर मैं चुप ही रहा।
पास ही खड़ी हुई दूसरी युवती ने प्रश्न किया, आप रात भर यहीं रहेंगे, घर न जाएँगे?

मेरे मुंह से अचानक निकल गया, घर? मेरा घर कहाँ है? कहाँ जाऊँ? यह बात न जाने किस धुन में मैं कह तो गया, किंतु कहने के साथ ही मुझे अफसोस भी हुआ-आखिर यह बात इनसे मैंने क्‍यों कही? मैं बिना घर का हूँ या घर से बहुत विरक्त, यह इन स्त्रियों के सामने प्रकट करके, मैंने क्या इनसे किसी प्रकार की सहानुभूति पाने की आशा की थी?

किंतु बहुत टटोलने पर भी अपने हृदय में, उन स्त्रियों से किसी प्रकार की सहानुभूति प्राप्त करने की लालसा मुझे न मिली, अचानक इसी समय कहीं से मंदाकिनी आकर बोल उठी, ओहो ! योगेश भैया! तुम बिना घर के कब से हो गए? अच्छी बात है? मैं जाकर भाभी से पूछूँगी कि क्या भैया को घर से निकाल दिया है?

मंदाकिनी की बात का कुछ उत्तर न देकर मैंने दृढ़ और गंभीर स्वर में वृजांगना से कहा, मैंने आपसे अभी कहा न कि मैं आपकी अँगूठी सबेरे ढूँढ़कर दे दूँगा। और उस अँगूठी के लिए मैं रात भर यहाँ रहूँगा भी! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास हो तो आप निश्चिंत होकर घर जाइए। आँगूठी आपको सबेरे मिल जाएगी।

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